पैनी नजर

Saturday 18 May 2013

आतंकियों के हिमायतियों को हम क्यों झेलें?

ब्लॉग में आगे पढने से पहले एक नजर इस फोटो पर डालें -

India's Most Wanted (Photo Courtesy: The Guardian) -












अब आगे पढते हैं।
एक खबर - अंडा सेल में 'घुटन' महसूस कर रहे संजय दत्त - Zee New

सबको पता है जेल में रिफ्रेशमेंट या तरोताजा होने के लिए नहीं भेजा जाता है। दूसरी और टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के अनुसार महेश भट्ट कहता है कि वो चिंतित था कि "संजय दत्त उस बर्बर माहौल का सामना कैसे करेगा? जिसमें वो जा रहा है"!!!


हाँ आतंकी ऐसे भी होते हैं ! एक किस्म वाले बम विस्फ़ोट और अन्य आपराधिक साजिशों में शामिल है और दुसरे किस्म वाले बौद्धिक आतंक में ... आतंकियों के कुकर्मों की लीपापोती में, उनके पक्ष में माहौल बनाने में!

हैरत की बात है की इनमें से किसी को निर्दोषों के मारे जाने या सामाजिक सुरक्षा के प्रति जवाबदेही का ख़याल तक नहीं आता। ध्यान रहे संजय दत्त आतंकी वारदात के प्लान का एक हिस्सा था और आतंकियों का साथी। आतंकी वारदात के सालों बाद तक वो देश से भाग चुके आतंकियों के साथ गलबहियां कर रहा था। इसलिए संजय दत्त कोई सामान्य नागरिक नहीं वह आतंकी ही है।

अब खबरों पर और सहानुभूतियों पर लौटते हैं क्या ये मिडिया का गिरा हुआ मानसिक स्तर है? जो वो एक खतरनाक अपराधी को जेल में हो रही घुटन के बारे में आपको परोस रहा है !! या फिर एक आतंकी के हिमायतियों (भट्ट) की चिंताएं आप तक चाशनी में लपेट कर पहुंचा रहा है!!

जी नहीं!! ये इनका गिरा हुआ मानसिक स्तर नहीं है, ये है इनकी प्रतिबद्धताएं जो की भारत के विरुद्ध हैं, आम भारतीय जन के विरुद्ध हैं, भारत के सिस्टम के विरुद्ध हैं। इस विष वमन के बावजूद हमारे पास ऐसा सिस्टम नहीं है जो ऐसे मिडिया हाउसेज पर ताला लटकाये और आतंकियों के ऐसे हिमायतियों को जेल भेजे।

इसीलिये आतंकी हमले जारी हैं, देश को अन्दर से तोडने, मॉस ब्रेनवाश की कोशिशें जारी हैं, और इन सबके साथ जारी है सिस्टम का और भ्रष्ट और और ज्यादा नाकारा होना ...


तो अब एक सीधा सा सवाल उठता है कि आतंकियों के हिमायतियों को हम क्यों झेलें?



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Saturday 12 May 2012

महारानी महारानी का फ़र्क और लोकतंत्र

भारत के गरीबों से बना इटैलियन महारानी का सिंहासन
दॄश्य एक:

एक महारानी: ये बाहर भीड कैसी है?
हर हाइनेस ये गरीब हैं, इनको रोटी नहीं मिलती इसलिये इकट्ठे होके शोरगुल कर रहे हैं
महारानी: इन गरीबों को रोटी नहीं मिलती तो ये केक क्यों नहीं खाते !!

दॄश्य दो:

इटैलियन महारानी: ओ मुन्नू जी, ये बाहर भीड कैसी है?
हर हाइनेस ये सब गरीब हैं इनको रोटी नहीं मिलती क्योंकि इनको आपके खास लोगों ने लूट लूट के इस लायक भी नहीं छोडा कि ये रोटी तक खा सकें
महारानी: अच्छा ! फ़िर भी ये इकट्ठे होकर हाय हाय करने की‌ हिम्मत रखते हैं !! महंगाई इतनी बढा दो कि ये इकट्ठे हो के विरोध करने की जगह भूख के मारे एक दूसरे को ही खा जायें !!

जनतंत्र जारी है ...

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Sunday 6 May 2012

गोटी, काला मजदूर और सत्य के प्रयोगों में विदेशी सहायता


गोटी अपने 'सत्य' के प्रयोगों के लिये फ़ांसे गये 'ओब्जेक्ट' के साथ

नोट - ये दुर्लभ पिक है, इसे ना ज्यादा ना घूरें, वरना चश्मा उतर सकता है !!
लंगोटीदास चांदी का जन्म 1 अप्रेल को भारत की कई आर्थिक राजधानियों में से एक राजधानी में हुआ था। उनका मिडलनेम स्वयं उन्होनें बाद में लगाया था - "कुकर्मअंध"

ये वो समय था जब गोरे अंग्रेज चले गये थे और जाते जाते सत्ता 'ट्रांसफ़र ओफ़ पावर' एग्रीमेंट से काले अंग्रेजों को सौंप गये थे जिनके लिये एक प्रसिद्ध कहावत याद आती है - भेड की खाल में भेडिया

लंगोटीदास के पिता राजधानी के दीवाने थे और उस समय तक उन्होनें काफ़ी माल कूट लिया था, इतना कि अपने प्यारे लंगोटीदास की युवावस्था प्रारंभ होने से पूर्व ही शादी कर सकें, फ़िर उसे उस जमाने में भी जब भारत के लोग आज की गरीबी की रेखा ना होते हुए भी गरीब थे, अपने लंगोटीदास को पढने (पढने? हा हा हा) बाहर भेज सकें।

युवावस्था से पूर्व ही शादी होने के बावजूद होनहार लंगोटीदास ने अपार पराक्रम दिखाते हुए अपनी 10-15 साल की पत्नी से शीघ्र ही संतान उत्पन्न कर डाली। (10-15 साल सिर्फ़ अंदाजा है क्योंकि उस समय लंगोटीदास खुद पन्द्रह वर्ष का था)। इस प्रकार हमारे प्यारे लंगोटीदास ने बचपन में ही व्यापक अनुभव प्राप्त कर लिये थे और ये अनुभव उसके जीवन पर्यंत काम आये कभी बकरियों के साथ तो कभी ब्रेनवाश्ड कन्याओं और महिलाओं के साथ L मेरा मतलब 'सत्य' के प्रयोग करते हुए। (आगे 'सत्य' का मतलब क्या है ये जान गये हैं तो उसे उसी रूप में पढें पूरे पोस्ट में, भारत में रहकर चांदी फ़ैमिली के खिलाफ़ लिखने से माननीय टोर्क नाराज हो जाती है, सो सावधानी रखनी पडती है)

एक और एक्रोनिम है - ये लगोटीदास नाम लंबा और अश्लील होने के कारण इसे आगे गोटी नाम से जाना जायेगा ब्लोग में -

आगे चलते हैं, अब हर बात बताने बैठ गया तो गोटी की जीवनी लिखी जायेगी फ़ोकट में, माना फ़्री हूं, पर इतने बुरे दिन भी नहीं आये कि गोटी की जीवनी लिखूं !!

प्रसंग स्विसारण का है। सन 1900-2000 की बात है। नयी नयी दुकानें खुली थीं जिनको मजेदार नाम दिये गये थे, जैसे कि एक सबसे प्रचलित दुकान का नाम था 'सत्या'ग्रह ('सत्य' का मतलब तो आप जानते ही हैं)। कहानी यूं कि विदेशियों ने भारत के जनमानस को अच्छे से समझ लिया था उनको पता था कि राजे-रजवाडे और नवाब किसी भी‌ कीमत पर सिर्फ़ सत्ता के प्यासे हैं और जनमानस पर बुद्ध और महावीर की गहरी छाप है, कई साल पहले एक विदेशी ने देशी लोगों की ऐसी जमात को इकठ्ठा करने के लिये जो कि गाय खाकर खुद को प्रगतिशील समझे, का एक संगठन बनाया था और आने वाले समय में गोटी की 'सत्य' के प्रति ललक और नाम कमाने की वहश देख के गोटी के हाथों उसकी कमान सौंप दी, गोटी उर्फ़ चांदी को उन लोगों ने मंतर भी फ़ूंक के दिये, और अपने काले अंग्रेजों से उसका प्रचार भी कराया। बडा नाजुक समय था और उन लोगों ने गोटी पे बहुत बडा दांव खेला, अगर गोटी के दिल में गलती से भी देश प्रेम जाग जाता तो उनको तुरंत बोरिया बिस्तर गोल करना पडता GPL खा के ।

हां हां ठीक है मैं हिंदी में लिखने की कोशिश कर रहा हूं पर ना तो मैं साहित्यकार हूं और ना ही निराला की लाइन का हूं इसलिये नये शब्द जो यहां आपको दिखें उनके लिये मान लें कि वो हिंदी में जोड लिये गये हैं उसको समॄद्ध करने के लिये, आगे चलें ?

हां तो गोटी की नयी दुकानों में सब भाग ले सकते थे, उसमें अपनी ऊर्जा नष्ट करने के बाद इतनी ऊर्जा नहीं बचती थी कि काले या गोरे अंग्रेजों का विरोध किया जा सके और गोटी भी अपने मालिकों को निराश ना करते हुए, हर कुछ समय बाद सब देश वालों को सडक पे ला के खूब नारे लगवा के उनको घर भेज देता था ठीक उससे पहले जब वो जोश में आ के मरने मारने पे उतारू हों। ठीक पहचाना आजकल यही काम गन्ना और उसकी नाटक मंडली कर रही है।

बैक टू हिस्ट्री, ऐसे ही अनेकों दुकानों और कार्यक्रमों में से एक "'सत्या'ग्रह" में सब भाग ले सकते थे। मुंबारण में गोटी ने इस दुकान की एक बडी सी जगमगाती ब्रांच खोल डाली थी, जो सत्याग्रह चल रहा था, उसमें "स्टैंडिग" और "जी जी" जैसे रोगों से पीड़ित काले मजदूर भी शामिल थे। स्टैंडिंग रोग वाला वह काला मजदूर पैरों में फटे कपड़े की धोती सी लपेट के चलता था जिसपे लिखा होता था "कमेटी"।

उस काले मजदूर के पास कई लोग गोटी की किरपा पाने जाते और ना जाने क्यों और कैसे गोटी की किरपा के अलावा लोगों को पद भी मिल ही जाया करते थे, उन लोगों में अधिकांश,अधिकांश क्या लगभग सारी महिलायें ही होती थी, पर इसका मतलब ये नहीं था कि काला मजदूर पुरुषों के काम नहीं बनवाता था, बनवाता था, बस उन लोगों का जो अच्छे दिखते हों और सूटकेस साथ रखते हों। गोटी का आह्वान और उसकी आत्मशक्ति ने इस मजदूर और अन्य काम निकलवाने वाले लोगों को सत्याग्रही बनने के लिए प्रेरित किया था।

समय का फ़ेर, एक बार काले मजदूर के बारे में एक अन्य मजदूर जो कि नालायकी दिखाते हुए ना तो "'सत्या'ग्रह" करता था और ना ही जिसकी कोई "औकात" थी, बकबक करता पाया गया कि काला मजदूर तो एकदम गोटी स्टाइल में भक्तों के साथ प्रयोग करता है। "अन्य" मजदूर का मुंह बंद करवा कर गोटी ने काले मजदूर को उसकी पासबुक के साथ बुलावा दे भेजा।

गोटी ने उससे कहा, “अरे, तुमसे घोटाला ठीक से नहीं किया जा रहा था, तो तुम्हें मुझसे कहना चाहिए था ना।” लालटेन की रोशनी में उसकी पासबुक पर गोटी की नज़र गई। बैलेंस में जीरो गिने नहीं जा रहे थे| गोटी के और काले मजदूर के साथ के दूसरे दुराग्रही (इसे "सत्या'ग्रही पढें) शाम होने से पहले ही राजधानी में बहुतायत से उपलब्ध अपना मंदीवाडा दूर करने आयी विदेशी कन्याओं को काल करके रात को 'सत्य के साथ प्रयोगों' के लिये बुक करा चुके थे।

गोटी उस काले मजदूर उर्फ़ स्विस एकाउंट्ये की पासबुक देख के खुश हुए और आगे बढ के उसे गले लगा लिया पर वो पीछे हट के बोला खुजात्मा ये साउथ अमेरिका के प्रयोग यहां मेरे साथ नहीं चलेंगे।

हकबकाये गोटी ने अपनी चादर फाड़कर खिडकी पे लगा दी ताकी उनकी बातें बाहर ना जा सके | उसके बाद अपने कमीशन का बंटवारा शुरू किया और कहा दो परसेंट भले ही कम दे पर हरदम मीडिया को मस्त वाला मैनेज करके रख तुझे तो पता ही है कि मुझे बस नाम की भूख है, बाकी तो मैं 'प्रयोगों' के नाम पे किसी को नहीं छोडता।

ये सब जरूरी काम निपटा के बाहर इकट्ठे हुए मूर्खों को दिखाने के दांत शुरू हुए अर्थात भजन शुरू हुआ। प्रार्थना भी हुई। वह स्विस अकाउंट धारी काला मजदूर काल करके बुलाई गई प्रेम की सरिता में गोते लगाता हुआ तालियां बजा रहा था। उसकी आंखें भक्ति और सेवामूर्ति गोटी के स्नेह से भरी हुई थीं। 

... (तीन डोट्स का मतलब फ़िर मिलेंगे) ... ;)

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